हाल ही में उच्चतम न्यायालय का चुनाव आयोग से जुड़ा एक निर्णय, न्यायिक राजनीति का एक उदाहरण है। एक मामले की सुनवाई के दौरान मद्रास उच्च न्यायालय ने महसूस किया कि राज्य के चुनावों में, चुनाव आयोग कोविड सुरक्षा दिशानिर्देशों को लागू करने में विफल रहा, जिसके परिणामस्वरूप महामारी तेजी से फैली। अपनी मौखिक टिप्पणियों में न्यायालय ने चुनाव आयोग पर हत्या के आरोप तक लगाए जाने की चेतावनी दी थी।
इसको लेकर उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी। इस पर उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग के प्रदर्शन की प्रशंसा भी की और मौखिक टिप्पणियों के प्रभाव को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि “सुनवाई के दौरान के अवलोकन निर्णय का नहीं होते हैं।’’ इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग और उच्च न्यायालय के बीच के इस संघर्ष का खूबसूरती से निपटारा कर दिया। साथ ही न्यायालय की सुनवाई के दौरान अवलोकन पर आधारित मौखिक टिप्पणी पर मीडिया रिपोर्टिंग के अधिकारों को बहाल रखा। पूरे मामले की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने न्याय से जुड़े एक आदर्श संतुलन को स्थापित करने का प्रयास करते हुए सुनवाई की।
कुछ प्रमुख बिंदु
निसंदेह राज्य अपने नागरिकों के जीवन की रक्षा करने और स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूरी के लिए बाध्य है, लेकिन न्यायालय को प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया की केवल समीक्षा का अधिकार है।
प्रशासनिक निर्णयों के अवैध, विकृत या असंवैधानिक होने की स्थिति में ही न्यायालय उसको प्रभावित कर सकता है। वह कार्यपालिका का स्थान नहीं ले सकता। वह कार्यपालिका को जिम्मेदार ठहरा सकता है।
प्रजातंत्र में तीनों मुख्य अंगों के बीच तनाव या मतभेद के प्रसंग आ सकते हैं। परंतु संकटकाल में तीनों से एकजुट होकर काम करने की अपेक्षा की जाती है। न्यायाधीशों से भी सामाजिक नेतृत्व की अपेक्षा की जा सकती है, क्योंकि वे कानून के शासन के रक्षक होते हैं। ‘जज इन ए डेमोक्रेसी’ नामक अपनी पुस्तक में बराक लिखते हैं कि ‘न्यायिक नीतियां और न्यायिक दर्शन न्यायपालिका के आधार हैं। संकटकाल में यही हमारा मार्गदर्शन करते हैं। न्यायाधीशों को इसी का अनुसरण करना चाहिए।’
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित आर सी लाहोटी के लेख पर आधारित। 15 मई, 2021
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